जलियांवाला बाग हत्याकांड स्वतंत्रता संग्राम के लहूलुहान पृष्ठ

13 अप्रैल, 1919 का दिन भारतीय इतिहास के पन्नों में एक ऐसे काले अध्याय के रूप में अंकित है,
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2025-04-16 18:39:33

रेवाड़ी 13 अप्रैल, 1919 का दिन भारतीय इतिहास के पन्नों में एक ऐसे काले अध्याय के रूप में अंकित है, जिसे समय की धूल भी धुंधला नहीं कर सकती। इस दिन अमृतसर के हृदयस्थल में स्थित जलियांवाला बाग नामक एक शांत स्थान अचानक ही ब्रिटिश हुकूमत की बर्बरता और अमानवीयता का साक्षी बन गया। बैसाखी के पवित्र त्योहार के दिन, जब हजारों निर्दोष लोग शांतिपूर्ण ढंग से एकत्रित हुए थे, ब्रिगेडियर-जनरल रेजीनाल्ड डायर के नेतृत्व में ब्रिटिश सैनिकों ने उन पर अंधाधुंध गोलियां बरसाईं, जिससे एक ऐसा नरसंहार हुआ जिसने पूरे देश को शोक और क्रोध की ज्वाला में झोंक दिया। जलियांवाला बाग हत्याकांड न केवल एक भयानक त्रासदी थी, बल्कि यह भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ भी साबित हुई, जिसने ब्रिटिश शासन के अंत की नींव को और मजबूत किया। उस वर्ष, पंजाब और विशेष रूप से अमृतसर का माहौल Rowlatt Act नामक एक दमनकारी कानून के पारित होने के कारण पहले से ही तनावपूर्ण था। इस कानून ने ब्रिटिश सरकार को बिना किसी मुकदमे के किसी भी भारतीय को गिरफ्तार करने और अनिश्चित काल तक हिरासत में रखने का व्यापक अधिकार दे दिया था। इसने भारतीयों की नागरिक स्वतंत्रता और न्याय के मूलभूत सिद्धांतों का घोर उल्लंघन किया था, जिसके कारण पूरे देश में विरोध की लहर दौड़ गई थी। महात्मा गांधी ने इस कानून के खिलाफ सत्याग्रह का आह्वान किया था, और पंजाब में भी इसके खिलाफ ശക്ത प्रदर्शन हो रहे थे। अमृतसर में, दो लोकप्रिय राष्ट्रवादी नेताओं, डॉ. सैफुद्दीन किचलू और डॉ. सत्यपाल को 10 अप्रैल, 1919 को गिरफ्तार कर लिया गया था, जिससे शहर में और भी अधिक अशांति फैल गई थी। इसके विरोध में लोगों ने शांतिपूर्ण जुलूस निकाले, लेकिन ब्रिटिश पुलिस ने उन पर लाठीचार्ज किया और गोलियां भी चलाईं, जिसके परिणामस्वरूप कुछ प्रदर्शनकारियों की मौत हो गई। इस घटना ने स्थानीय लोगों के गुस्से को और भड़का दिया। 13 अप्रैल को बैसाखी का त्योहार था, जो सिखों के लिए एक महत्वपूर्ण धार्मिक और सांस्कृतिक अवसर होता है। इस दिन हजारों की संख्या में श्रद्धालु स्वर्ण मंदिर में मत्था टेकने और मेले में घूमने के लिए अमृतसर आए हुए थे। दोपहर के समय, लगभग 5000 से 10000 लोग जलियांवाला बाग में एकत्रित हुए। इनमें से कुछ लोग Rowlatt Act के विरोध में आयोजित एक सार्वजनिक सभा में भाग लेने आए थे, जबकि बड़ी संख्या में महिलाएं, बच्चे और बुजुर्ग बैसाखी के मेले का आनंद लेने के लिए वहां मौजूद थे, अनजान इस बात से कि कुछ ही क्षणों में उनके साथ क्या होने वाला है। जलियांवाला बाग, जो कि महाराजा रणजीत सिंह के एक दरबारी सरदार जल्ला सिंह की संपत्ति थी, एक अपेक्षाकृत संकरा और अनियमित आकार का मैदान था। इसकी चारों ओर ऊंची दीवारें थीं और इसमें प्रवेश और निकास के लिए केवल पांच संकरे रास्ते थे, जिनमें से अधिकांश पर ताला लगा हुआ था। मुख्य प्रवेश द्वार भी काफी संकरा था, जिससे एक साथ बड़ी संख्या में लोगों का निकलना मुश्किल था। ब्रिगेडियर-जनरल रेजीनाल्ड डायर, जिसे अमृतसर में शांति व्यवस्था बनाए रखने का काम सौंपा गया था, को जब इस सभा की सूचना मिली तो उसने इसे कानून का उल्लंघन माना, भले ही वह शांतिपूर्ण थी। दोपहर लगभग साढ़े चार बजे, डायर अपने लगभग 90 ब्रिटिश भारतीय सैनिकों के साथ, जिनमें से अधिकांश गोरखा राइफल के थे, बाग में पहुंचा। उनके पास राइफलें और मशीनगनें थीं। डायर ने बिना किसी चेतावनी के और बिना भीड़ को तितर-बितर होने का कोई मौका दिए, अपने सैनिकों को गोलियां चलाने का आदेश दे दिया। यह एक भयावह दृश्य था। निहत्थे और शांतिपूर्ण लोगों पर अंधाधुंध गोलियां बरसने लगीं। गोलियों की आवाज से बाग गूंज उठा और चीख-पुकार मच गई। लोग जान बचाने के लिए इधर-उधर भागने लगे, लेकिन ऊंची दीवारों और संकरे रास्तों के कारण वे कहीं भी सुरक्षित नहीं जा सके। सैनिक लगातार गोलियां चलाते रहे, और मासूम लोग गोलियों से छलनी होकर जमीन पर गिरते रहे। महिलाएं अपने बच्चों को बचाने की कोशिश में उनके ऊपर लेट गईं, लेकिन क्रूर गोलियों ने उन्हें भी नहीं बख्शा। बुजुर्ग और युवा सभी इस बर्बर नरसंहार का शिकार हुए। बाग में स्थित एक कुआं, जो कभी लोगों की प्यास बुझाता था, वह भी लाशों से पट गया, क्योंकि लोग गोलियों से बचने के लिए उसमें कूद गए थे। जब तक सैनिकों की गोलियां खत्म नहीं हो गईं, तब तक यह खूनी खेल चलता रहा। डायर ने बाद में अपनी सफाई में कहा कि उसने अधिकतम प्रभाव पैदा करने के लिए गोलियां चलवाईं ताकि भविष्य में कोई भी ब्रिटिश शासन के खिलाफ विद्रोह करने की हिम्मत न करे। इस भयानक हत्याकांड में मारे गए लोगों की सही संख्या आज भी एक विवाद का विषय है। ब्रिटिश सरकार के आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार मरने वालों की संख्या 379 थी, जिसमें 337 पुरुष, 41 नाबालिग लड़के और 6 शिशु शामिल थे। हालांकि, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपनी जांच में यह संख्या 1000 से अधिक बताई थी। प्रत्यक्षदर्शियों और पीड़ितों के परिवारों का भी यही मानना था कि मरने वालों की संख्या बहुत अधिक थी। हजारों लोग इस गोलीबारी में बुरी तरह से घायल हुए, जिनमें से कई ने बाद में दम तोड़ दिया। जलियांवाला बाग हत्याकांड की खबर जैसे ही फैली, पूरे देश में शोक और गुस्से की लहर दौड़ गई। इस अमानवीय कृत्य की चौतरफा निंदा हुई। रवींद्रनाथ टैगोर, जिन्होंने ब्रिटिश सरकार द्वारा दी गई नाइटहुड की उपाधि प्राप्त की थी, ने इस नरसंहार के विरोध में अपनी उपाधि लौटा दी। उन्होंने वायसराय लॉर्ड चेम्सफोर्ड को लिखे पत्र में कहा, सम्मान का बिल्ला अपमान के संदर्भ में हमारे शर्म को उजागर करता है, और इसलिए मैं सभी विशेष उपाधियों से खुद को अलग करना चाहता हूं। महात्मा गांधी ने इस घटना को ब्रिटिश सरकार का निर्लज्ज और अमानवीय कृत्य कहा और असहयोग आंदोलन की नींव रखी। इस हत्याकांड की जांच के लिए ब्रिटिश सरकार ने लॉर्ड विलियम हंटर की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया, जिसे हंटर कमीशन के नाम से जाना जाता है। इस आयोग ने डायर के कार्यों की निंदा की, लेकिन उसे उसके पद से हटाने या किसी भी तरह की कड़ी सजा देने की सिफारिश नहीं की। डायर को अंततः 1920 में इस्तीफा देना पड़ा, लेकिन उसे ब्रिटेन में हीरो के रूप में सम्मानित किया गया और उसे एक तलवार और 26,000 पाउंड की धनराशि भेंट की गई। यह देखकर भारतीयों में और भी अधिक आक्रोश फैल गया। जलियांवाला बाग हत्याकांड भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। इसने ब्रिटिश शासन के असली चेहरे को उजागर कर दिया और भारतीयों को स्वतंत्रता के लिए अपने संघर्ष को और तेज करने के लिए प्रेरित किया। इस घटना ने महात्मा गांधी के नेतृत्व में राष्ट्रीय आंदोलन को एक नई ऊर्जा और दिशा प्रदान की। असहयोग आंदोलन, जो 1920 में शुरू हुआ, जलियांवाला बाग हत्याकांड के विरोध और न्याय की मांग का ही परिणाम था। आज भी जलियांवाला बाग उस भयानक त्रासदी की याद दिलाता है। यह उन निर्दोष शहीदों का स्मारक है जिन्होंने ब्रिटिश अत्याचार के खिलाफ अपनी जान कुर्बान कर दी। हर साल 13 अप्रैल को यहां शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए हजारों लोग एकत्रित होते हैं। यह स्थान हमें यह याद दिलाता है कि हमें कभी भी अन्याय, अत्याचार और दमन के सामने नहीं झुकना चाहिए और हमेशा शांति, न्याय और स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करते रहना चाहिए। जलियांवाला बाग हत्याकांड भारतीय इतिहास का एक ऐसा लहूलुहान पृष्ठ है, जो हमें मानवीय मूल्यों और अधिकारों की रक्षा के लिए हमेशा प्रेरित करता रहेगा। यह घटना हमें सिखाती है कि सत्ता का दुरुपयोग कितना विनाशकारी हो सकता है और हमें हमेशा सतर्क रहकर ऐसे अत्याचारों को रोकने के लिए काम करना चाहिए।

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