जब बच्चे पंछी उन्मुक्त गगन के, फिर पढ़ाई का इतना दबाव क्यों?

बड़ी विचित्र विडंबना है कि डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन की ये पंक्तियां विद्यार्थियों को पढ़ाई जाती हैं : हम पंछी उन्‍मुक्‍त गगन के, पिंजरबद्ध न गा पाएँगे।
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2025-01-30 16:44:22

कनक-तीलियों से टकराकर, पुलकित पंख टूट जाऍंगे। फिर लगातार धन की अंधी दौड़ में वे सारे प्रयास किए जाते हैं, जिससे उनकी स्वतंत्रता बाधित हो सके। इसमें संस्थान और अभिभावक दोनों शामिल हैं। संस्थान अपने धन लिप्सा के कारण तथा अभिभावक अपनी आंखों पर बंधी स्वप्निल पट्टी के कारण। शिक्षा मानवीय सभ्यता का सबसे महत्वपूर्ण विषय है। किसी भी लोकतांत्रिक देश में श्रेष्ठ नागरिक तैयार करने के लिए इसकी आवश्यकता हमेशा बनी रहेगी। शिक्षा के तीन महत्वपूर्ण अंग हैं- विद्यार्थी, शिक्षक तथा अभिभावक। शिक्षक प्रशिक्षित हैं, विद्यार्थी को शिक्षण प्राप्त करना है, परंतु भारतीय शिक्षण परिदृश्य में अभिभावकों की स्थिति बड़ी विचित्र है। शिक्षा के बाजारीकरण ने उनकी हालत खराब कर दी है। विद्यार्थियों की सफलता दर बहुत कम है, परंतु कुछ गिने-चुने विद्यार्थियों की फोटो छाप छाप कर निजी शिक्षण संस्थाएं तथा कोचिंग सेंटर धन कूट रहे हैं।अभिभावक बहुत ही कंफ्यूज है, वह बाजारवाद के शिकार हैं।बाजार जैसे चाहता है वैसे ही उनका प्रयोग करता है । इसका सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव बच्चों पर पड़ता है क्योंकि अभिभावकों की तमाम तमाम स्वप्निल उम्मीदें ढोने के लिए बच्चे बाध्य हैं। आज के परिवेश में इंजीनियर बनिए डॉक्टर बनिए, अगर यह सब कुछ नहीं कर सकते ऐसा लगता है, जैसे आप इस धरती पर केवल एक बहुत बड़ा बोझ हैं। तमाम तरह के मनोवैज्ञानिक विश्लेषण उनके के बावजूद विद्यार्थियों के मस्तिष्क पर लगाता बोझ बढ़ता जा रहा है। दावा यह किया जाता है कि प्राचीन शिक्षा पद्धति से नई शिक्षा पद्धति कहीं बेहतर है।यह मनोवैज्ञानिक रूप से भार मुक्त है।बाल केंद्रित है। पर व्यवहारिक स्थिति यह है कि बालक बोझ से दबा जा रहा है।मरा जा रहा है। वह चित्कार रहा है,पर कोई सुनने के लिए तैयार नहीं है।राष्ट्रीय स्तर पर समान शिक्षा,समान वातावरण में शिक्षा, समान पाठ्यक्रम दूर की कौड़ी लगते हैं। दावे बहुत बड़े बड़े हैं पर कोचिंग सेंटरों के जंगल ने परीक्षाओं को अपने काबू में कर लिया है। अभिभावक इस अंतहीन चक्की में पिसने के लिए मजबूर हैं। खेल खेल में शिक्षा, प्रायोगिक विषयों की शिक्षा प्रयोगात्मक तरीके से शिक्षा जैसे जुमले केवल जुमले हैं। सरकारी स्कूल यदि संसाधनों का रोना रोते हैं, तो प्राइवेट स्कूलों शिक्षा पाने वाले विद्यार्थी भी विज्ञान जैसे विषय या लैब के महत्व से अपरिचित हैं। दिखावे के अलावा वे आज भी रट्टन्त विद्या पर ही निर्भर है। यह बहुत दुखद है।कौशल का विकास नहीं हो रहा है। नंबरों के अंधेरगर्दी अभी तक समाप्त नहीं हो पाई है। अधिकाधिक प्राइवेट संस्थान इस कदर बावले हो गए हैं नम्बर की इस अंधी दौड़ में अपने वर्चस्व को स्थापित करने के लिए उन्होंने बोर्ड कक्षाओं के लिए प्रातः कालीन सभा को समाप्त कर दिया है। हाईकोर्ट से ऑर्डर लेकर छुट्टियों में भी कक्षाएं जारी रखने का आदेश प्राप्त किए जा रहें हैं। अनावश्यक रूप से अध्यापन के घंटे बढ़ा दिए गए हैं। और उसके बाद अभिभावक विद्यार्थी को कोचिंग संस्थाओं में भेजते हैं। यह कुछ वैसी ही स्थिति है, जैसे पंजाब में किसानों को फसल बढ़ाने के लिए वैज्ञानिक खाद तथा उर्वरकों की मात्रा के बारे में सलाह देते थे। उसके बाद जो खाद बेचने वाले उसमें अपनी विशेषज्ञता शामिल कर धन लिप्सा में उसे बढ़ा देते थे।इसके उपरांत किसान स्वयं अपनी बुद्धि कौशल का प्रयोग करते हुए उर्वरकों की मात्रा और बढ़ा देता। अधिक से अधिक फसल प्राप्त करने की इस अंधीदौड का परिणति यह हुई कि धरती बांझ हो गई।इंसान कैंसर से पीड़ित हो गए।यही हम बच्चों के साथ कर रहे हैं।हमें बहुत सचेत होने की आवश्यकता है।आज बच्चे विस्फोटक हो गए हैं। घरों में बच्चे से कोई काम नहीं करवाया जाता। आने वाले लोगों से मिलने नहीं दिया जाता। सब काम माता-पिता स्वयं करने को आतुर रहते हैं। चाहते हैं बच्चा केवल लगातार पढ़ता जाए। अंधाधुंध स्टोर करने से तो मोबाइल हैंग हो जाते हैं,बच्चे की बुद्धि की कुछ तो सीमा होगी। माटी के साथ,मातृ भाषा के साथ,मित्रों के साथ बच्चों के जितने आत्मीय संवेदनशील संबंध हैं,हमने जाने अनजाने उन सभी को समाप्त कर दिया है।संबंधियों से मिलना तो कब का हम पहले ही छोड़ चुके थे।यह बहुत ही विस्फोटक स्थितियों की ओर संकेत करता है। समय रहते हमें जागरूक हो जाना चाहिए।सरकार की तरफ से फरमान है कि सभी सीबीएसई द्वारा मान्यता प्राप्त या राज्यों में चलने वाले स्कूल सरकार द्वारा निर्धारित पुस्तकों को ही पढ़ाएंगे। पर यह एक जुमला सिद्ध हो रहा है। हम जानते हैं कि सभी निजी विद्यालय निजी प्रकाशकों की पुस्तकें बच्चों को पढ़ाते हैं। इसमें गलत क्या है? बाजारवादी लोगों को यह दिखाना बहुत जरूरी होता है कि आपका बच्चा उस मानसिक स्तर के अनुरूप अपनी परफॉर्मेंस नहीं दे पा रहा है। इसलिए जानबूझ कर कीमत बढ़ाने के लिए पुस्तकों में पेजों की संख्या अनावश्यक रूप से बढ़ा दी जाती है। विद्यार्थी कोचिंग लेने के लिए भी बाध्य हो जाता है। संस्थान स्वयं तो हर विषय का शिक्षक रखते हैं। विषय में भी अब तो टॉपिक्स के हिसाब से शिक्षक रखे जाने लगे हैं, परंतु क्या एक बच्चे के लिए इतनी अधिक सामग्री को अपने मस्तिष्क में बैठा पाना संभव है। इस गंभीर विषय पर चिंतन की महती आवश्यकता है। हमें प्रयास करना चाहिए कि श्रेष्ठ मस्तिष्को की स्वच्छंद उड़ान में हम बाधा न बने।

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