2025-04-28 20:10:49
इस धराधाम पर सर्वशक्तिमान न्याय के देवता और भगवान् विष्णु के छठे अवतार भगवान् परशुराम जी का जन्मोत्सव हर साल वैशाख माह के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को धूमधाम से मनाया जाता है।इस दिन देशभर में भगवान परशुराम को मानने वाले सभी लोग विशेषकर ब्राह्मण उनकी पूजा अर्चना करते हैं और जगह-जगह उनकी शोभा यात्राएं निकाली जाती हैं।एक पौराणिक मान्यता के अनुसार वे ब्रह्मा जी के मानस पुत्र भृगु ऋषि के वंशज थे,उनका जन्म महर्षि भृगु के पुत्र महर्षि जमदग्नि के घर मां रेणुका के गर्भ से सबसे छोटे पुत्र के रूप में हुआ जो सप्तऋषि मण्डल में सातवें ऋषि थे।त्रेता युग में रामायण काल से लेकर द्वापर युग में महाभारत काल तक उनकी पहचान है।महाभारत और विष्णु पुराण के अनुसार भगवान् परशुराम जी शिवजी के परम भक्त थे और भगवान् शिवशंकर जी उनके गुरु थे।उन्होंने ही मृत्युलोक के कल्याणार्थ तथा धरती के राक्षसों का नाश करने के लिए परशु (फरसा)अस्त्र उनको दिया था जिसके कारण ही उनका नाम परशुराम कहलाया।वे शास्त्र के साथ ही शस्त्र विद्या के महान गुरु थे जिन्होंने भीष्म पितामह,गुरु द्रोणाचार्य व दानवीर कर्ण को शस्त्र विद्या सिखाई थी।वे स्वयं सबसे कुशल और निपुण योद्धा तथा वीरता के साक्षात् उदाहरण थे जिन्होंने धरती पर जब अत्याचार व अनाचार अपनी चरम सीमा पर था और ऋषि मुनियों के आश्रमों को नष्ट किया जा रहा था,तब पाप मिटाने के लिए इक्कीस बार धरती को आतयायी विहीन किया था।वह समय ऐसा था जब असुरों की बाढ़ सी आई हुई थी,उनका आतंक सब ओर छाया हुआ था।उस वक्त पृथ्वी पर किसी में भी उनसे मुकाबले की हिम्मत नहीं थी चहूं ओर अन्याय और अत्याचारों को हर कोई खुली आंखों से देखते रहते फिर भी उनका प्रतिरोध इस विडंबना के कारण नहीं करते कि तुझे क्या पड़ी,तेरे को क्या मतलब,कौन-सा मेरे साथ अन्याय हो रहा है।जिस वक्त सब ओर मानवता कराह रही थी तब भगवान् परशुराम जी ने वो काम कर दिखाया जो कोई दूसरा नहीं कर सकता था।एक दिन एक सहस्रबाहु नाम का राक्षस उनके पिता महर्षि जमदग्नि के आश्रम में आ धमका और उस दुष्ट की दृष्टि उनकी मां रेणुका पर पड़ी।उनके अपहरण की दुर्भावना के कारण उसने महर्षि जमदग्नि की हत्या ही कर दी जब इस घटना का पता भगवान् परशुराम को चला तो वे अपनी इस भूल पर बहुत पछताए और समझ गए कि यदि उन्होंने बहुत पहले से ही दुष्टों और अनाचारियों के विरुद्ध संघर्ष छेड़ दिया होता,तो आज ऐसी स्थिति नहीं आती और उनके ख़ुद के साथ ऐसी नहीं बीतती।यह उनकी वीरता और शौर्यता का तकाजा ही था कि इसके बाद वे अपना फरसा लेकर निकल पड़े और उन्होंने सारी धरती के दुष्टों का समूल नाश करने की ठान ली और अन्यायी-अत्याचारी लोगों के सिर काट-काटकर ढहा दिए।उन्होंने एक बार नहीं बल्कि इक्कीस बार सारे भू-मण्डल को पापियों से मुक्त कर दिया।ऐसा वर्णन पौराणिक गाथाओं में आता है जो उनके वीर होने के साथ न्यायवादी होने को भी प्रकट करता है।अपनी वीरता और शौर्यता के साथ-साथ भगवान् परशुराम जी क्रोधी स्वभाव के लिए भी जाने जाते हैं।ऐसा माना जाता है कि जब वे कैलाश पर्वत पर शंकर भगवान् जी से मिलने गए तो गणेश जी के रोकने पर उनसे युद्ध कर बैठे और उनका एक दांत काट दिया जिसके कारण उनका नाम भी एक दन्त पड़ गया था।इससे भी बढकर वे अपने माता-पिता के अत्यंत आज्ञाकारी भी थे।उन्होंने अपने पिता जी के कहने पर अपनी मां की ही गर्दन काट दी थी।प्रभु परशुराम जी ने नैतिकता व मानवता के लिए अन्याय व अत्याचार का विरोध कर समाज को पाप मुक्त करते हुए उसे जोड़ने का कार्य किया।निस्संदेह वे एक महान् न्यायवादी थे,जिनका मानना था कि जहांअहिंसा मनुष्य का परम धर्म है वहीं धर्म नैतिकता व मानवता की रक्षा के लिए हिंसा करना उससे भी जरूरी और श्रेष्ठ है,जिसे हिंसा नहीं अपराधी को दण्ड देना कहते हैं।इस प्रकार भगवान् परशुराम जी के नियम और सिद्धान्त हरेक जनमानस को अन्यायियों, अत्याचारियों और पापियों का विरोध करते हुए उनका समूल नाश करने के लिए प्रेरित करते है।हमारे धर्मग्रंथ महाभारत में भी वर्णित श्लोक में कहा गया है- अहिंसा परमो धर्म:,धर्म हिंसा तथैव च हमारे प्राचीन और गौरवमयी इतिहास की पौराणिक कथाओं में भगवान परशुराम जी को अमर और मृत्यु मुक्त बताया गया है।