पुराने वाहनों पर प्रतिबंध ट्रैक्टर पर कितना वाजिब ?

बिहार में हवा की गुणवत्ता खराब होने पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 4 नवंबर 2019 को घोषणा की कि राज्य में 15 साल से पुराने व्यवसायिक और सरकारी वाहन नहीं चलेंगे।
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2023-07-19 13:37:22

- के.पी. मलिक

भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा सड़क नेटवर्क वाला देश है, जिसके वित्तीय वर्ष 2022 में वाहनों की कुल संख्या 326 मिलियन से अधिक थी। मतलब करीबन 60 फ़ीसदी आबादी आवागमन के लिए निजी या साझा वाहनों का उपयोग करती है। आंकड़ों के मुताबिक देश के अधिकतर राज्यों में बेहतर सड़कों के कारण न केवल सार्वजनिक आवागमन, बल्कि सड़कों के माध्यम से माल की औद्योगिक आवाजाही भी बढ़ रही है और वित्तीय वर्ष 2019 में सड़कों के माध्यम से लगभग 2.7 बिलियन मीट्रिक टन माल की ढुलाई हुई है। यही हाल कृषि क्षेत्र में उपयोग किये जाने वालों ट्रैक्टरों और अन्य मशीनों का है, भारत वैश्विक स्तर पर सबसे बड़े ट्रैक्टर बाजारों में से एक है, जहां 2016-2021 के बीच प्रति वर्ष औसतन 6 से 7 लाख ट्रैक्टर बेचे गए हैं।

भारत में पूर्वानुमानित अवधि (2023-2028) के दौरान 5.80 फ़ीसदी की सीएजीआर पर कृषि ट्रैक्टर बाजार का आकार 2023 में 2 हज़ार 236 मिलियन अमेरिकी डॉलर से बढ़कर 2028 तक 2 हज़ार 964 मिलियन अमेरिकी डॉलर होने की उम्मीद है। विश्व की सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश होने के कारण भारत विश्व को सबसे बड़ा उपभोक्ता बाजार तो उपलब्ध कराता ही है बल्कि विश्व का सबसे बड़ा ऑटोमोबाइल बाजार भी है। अर्थव्यवस्था में सुधार के साथ लोगों की क्रय क्षमता में भी सुधार हुआ है। लेकिन पिछले कुछ समय से जलवायु परिवर्तन कहे या अंतर्राष्ट्रीय ऑटोमोबाइल का बढ़ता दबाव, भारत में साल 2016 में नई स्क्रैप पॉलिसी लागू की गई, जिसके अनुसार पेट्रोल से चलने वाले 15 साल पुराने और डीजल से चलने वाले वाहनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया। ऊर्जा और संसाधनो पर रिसर्च करने वाले संस्थान द एनर्जी एंड रिसोर्स इंस्टिट्यूट (टेरी) द्वारा 2017 में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, वाहनों से होने वाला करीब 60 फ़ीसदी प्रदूषण 10 साल से अधिक पुराने वाहनों से होता है।

केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) के अनुसार, पुराने वाहन वर्तमान मानकों से 15 गुणा अधिक प्रदूषण फैला रहे हैं। दिल्ली में पुराने वाहनों को प्रदूषण का मुख्य दोषी मानते हुए ही एनजीटी ने 2016 में 10 साल पुराने डीजल वाहनों पर प्रतिबंध लगा दिया था। उच्चतम न्यायालय ने भी अक्टूबर 2018 में दिल्ली-एनसीआर में 10 पुराने डीजल और 15 साल पुराने पेट्रोल वाहनों पर रोक लगा दी। बिहार में हवा की गुणवत्ता खराब होने पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने 4 नवंबर 2019 को घोषणा की कि राज्य में 15 साल से पुराने व्यवसायिक और सरकारी वाहन नहीं चलेंगे। इसके अलावा 15 साल पुराने वाहनों की फिटनेस जांच की शर्त लागू कर दी। इस तरह के प्रतिबंध लगने के कारण अपनी उम्र पूरी कर चुके वाहनों की संख्या में भारी बढ़ोतरी तो हुई ही साथ में इसने मध्यम वर्गीय और ग्रामीण क्षेत्रों को सीधा प्रभावित किया है। मध्यम वर्ग जो इन वाहनों का मुख्य बाजार है, उसके लिए दुपहिया या चौपहिया वाहन रखना जरुरत से ज्यादा एक संपन्नता का प्रतीक (स्टेटस सिंबल) माना जाता है, लेकिन जब से यह नई स्क्रैप पॉलिसी आई है, इसने सीधे रूप से उनके सपनों और जेब दोनो पर सीधा हमला किया है। मध्यम वर्ग जो पहले से ही पीपीपी मॉडल के नाम पर रोज बढते टोल टैक्स और टोल कर्मियों की गुंडागर्दी से बिलबिला रहा था, नई स्क्रैप पॉलिसी से तो एक दम कराह उठा है। सरकार भले ही इसे पर्यावरण सुधार की तरफ अंतर्राष्ट्रीय प्रयासो में भारत का समर्थन मान रही हो, लेकिन बहुत से समाजिक, आरटीआई कार्यकर्ता इसे ऑटोमोबाइल सेक्टर की लॉबी के दवाब में, उनकी बिक्री बढ़ाने के लिय आम आदमी की जेब पर एक हमला बताते हैं। ऐसा नही है कि इस नीति के विरोध में कोई आवाज ना उठी हो, बहुत से लोगो ने इसे जनविरोध का एक आंदोलन बनाने और फैसला पलटने के लिए कोर्ट में याचिका तक डाली। परंतु कथित पूंजीपति ऑटोमोबाइल लॉबी के दवाब में यह विरोध पता नही कहां खो गया। भारत में भी अब तक इस समस्या से निपटने के लिए कोई कारगर नीति नहीं बनी है।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखने वाले सामाजिक कार्यकर्ता और विचारक बिशन सिंह ढिंडार कहते हैं कि देश में सभी दुपहियां एवं चौपहिया वाहनों पर एनजीटी के द्वारा 10 साल एवं 15 साल के लिए हम सभी पर जो नियम लगाए जा रहे हैं वे आम जनता के खिलाफ हैं। अतः उनको वापस लेना जरूरी है। क्योंकि यह नियम कहीं ना कहीं व्यवसायिक वाहनों के लिए तो ठीक है परन्तु निजी वाहनों के लिए बिल्कुल भी लागू नहीं होने चाहिये। हम सभी भली भांति जानते हैं कि हम निजी वाहनो का इस निश्चित अवधि में कुछ ज्यादा प्रयोग नही कर पाते हैं। जाहिर है कि अति आवश्यक होने पर ही ये सडक पर निकलते हैं। सभी परिवार की सुविधा के लिए ही वाहन खरीदते हैं ताकि बसों एवं ट्रेनों की भीड़ से बचा जा सके एवं इनकी मैनटेन्स यानी रखरखाव का भी सभी बहुत ज्यादा ध्यान रखते हैं, मैं तो कहूंगा कि अपने शरीर से भी ज्यादा वाहन के रखरखाव का ध्यान रखते हैं। जिस तरह हमारे शरीर का यदि कोई अंग बीमार हो जाता है तो उसका इलाज कराकर उसको सही करा लिया जाता है लेकिन एक अंग के ऊपर पूरे शरीर को ही नही बदला जाता है, ठीक उसी प्रकार वाहन का भी वही पार्ट बदलकर उसे भी ठीक करा लिया जाता है। अतः वाहन को कन्डम घोषित करना हमारे ऊपर अन्याय है। बडी मुश्किल से पाई पाई जोडकर हम अपने परिवार के लिए यह सुविधा कर पाते हैं। लेकिन एनजीटी से संबंधित सरकारी लोग कुछ घंटों की बैठक के बाद ही हमारे परिवारों को इस सुविधा से वंचित कर देते हैं। यह हम सभी के लिए बहुत बड़ा अन्याय है एवं अन्याय के खिलाफ़ लडना हमारा अधिकार है। लेकिन यह भी विदित है कि हम सब चुप रहकर इस अन्याय के विरुद्ध आवाज नही उठाते हैं। जिसका फायदा वाहन लाबी उठाती है। इसीलिए हम सभी को एकता के सूत्र में बंधकर इसके विरुद्ध आवाज उठानी चाहिए ताकि सरकार की समझ में आ जाए कि हम लोग अब किसी भी ऐसे अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने के लिए एकता के सूत्र में बंधकर सरकार एवं वाहन लाबी के अन्यायपूर्ण नियमों का विरोध करके सरकार को ऐसे नियम वापस लेने के लिए बाध्य कर सकें।

दरअसल पुराने वाहनों पर प्रतिबंध आज कई तरीकों से आम आदमी को प्रभावित कर रहा है। प्रतिबंधित वाहनों के मालिकों और चालकों को इसलिए निराशा का सामना करना पड़ रहा है, क्योंकि उनके पुराने वाहन प्रतिबंधित होने के कारण पुराने वाहन बेचकर या नए वाहन खरीदकर उपयोग में लाने के लिए अतिरिक्त खर्च करना पड़ रहा है। जिसमे या तो वो असमर्थ है या उनकी जेब पर अतिरिक्त बोझ पड रहा है। इतना ही नहीं प्रतिबंधित वाहनों के प्रतिबंध के कारण, पुराने वाहनों का रिसेल मूल्य बहुत ही कम हो गया है, जिससे उनके मालिकों को तो नुकसान है ही, बल्कि वो लोग भी प्रभावित है जिनकी आर्थिक स्थिति कमजोर है और जिनके पास इन वाहनों को बेचने के अलावा कोई और विकल्प नही है। किसानों पर भी इस प्रतिबंध का प्रभाव साफ़ महसूस किया जा सकता है, क्योंकि आज किसानों को भले ही पुराने ट्रैक्टरों को चलाने की मौखिक अनुमती मिल रखी हो, लेकिन अगर किसी दिन न्यायपालिका सख्त रुख अपनाती है और इन पुराने ट्रैक्टरों पर पूर्ण प्रतिबंध लगा देती है तो किसानों के लिए यह बहुत आत्मघाती कदम होगा। छोटी जोत वाले किसान जिनके लिए खेती पहले से ही घाटे का सौदा साबित हो रही है, उनके लिए नया ट्रैक्टर ख़रीदना मुश्किल ही नहीं बल्कि नामुमकिन साबित होगा। इसके अलावा उनके लिए जुताई और माल ढुलाई का खर्चा और बढ़ जायेगा। इसी प्रकार ज्यादातर किसान पुराने और प्रतिबंधित ट्रैक्टरों का उपयोग अपनी फसलों को मंडी तक पहुंचाने के लिए करते हैं, लेकिन पुराने ट्रैक्टर प्रतिबंध होने के परिणामस्वरूप, उन्हें भी अतिरिक्त खर्च और बाधाओं का सामना करना होगा।

बहरहाल, आम आदमी का मानना है कि इस दस-पंद्रह साल वाली नीति ने तो मध्यम वर्ग की कमर ही तोड़ कर रख दी है, किसी तरह किश्तों पर लाकर गाड़ी का सपना पूरा करते है, जिसकी कीमत शोरूम से निकलते ही कम होने लगती है। ग्रामीण किसानों का कहना है कि हमारे हमारे ट्रैक्टर कृषि कार्यों के लिए हैं वह खेतों में निश्चित दूरी तय करते हैं और हम उनको कृषि कार्यों में प्रयोग करने के लिए कम समय के लिए ही प्रयोग करते हैं ऐसे में सरकार का यह नियम हमारे लिए मुफीद नहीं है। क्योंकि हमारे पास 20-30 साल पुराने ट्रैक्टर आज भी अच्छी स्थिति में कृषि कार्य कर रहे हैं। लिहाजा इस स्थिति में हमारे लिए 10 साल में डीजल ट्रैक्टर का बदलना संभव नहीं है। सरकार को इस नीति पर तत्काल विचार करना चाहिए, जिससे कि देश के आम किसान को राहत मिल सके। बहरहाल सरकार के इस निर्णय के व्यापक प्रभावों को रोकने के उपाय में सबसे पहले डीजल एवं पेट्रोल वाहनों के विकल्प के तौर पर इलेक्ट्रिकल व्हीकल (ईवी) या दूसरे विकल्पों को ज्यादा अफोर्डेबल यानि मध्यम वर्ग के लिए खरीदने की सामर्थ्य और गुणवत्ता पूर्ण बनाया जाना चाहिए। इलेक्ट्रॉनिक वाहनों की बैटरी रिप्लेसमेंट के दामों को सब्सिडी के साथ सस्ता किया जाना चाहिए, जबकि किसानों को कम से कम 80 फ़ीसदी अनुदान पर नए ट्रैक्टर उपलब्ध कराये जाये। किसानों को अपने उत्पादों की मंडी तक वैकल्पिक माध्यमों से माल ढुलाई के लिए भी अनुदान योजना को मंजूरी मिलनी चाहिए। इस प्रतिबंध का असर अलग-अलग लोगों और क्षेत्रों पर भले ही भिन्न रह सकता है, लेकिन इसकी व्यापक प्रभावों की समझने और उसके उपाय के लिए स्थानीय परिस्थितियों का विश्लेषण किया जाना अति आवश्यक है।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं)

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