2025-04-29 19:04:13
रेतीली धरती के तपते आँचल में, फूली प्रकृति, प्रेम के कंचन पल में। जहाँ हिरण शिशु माँ के उर से लगते, जहाँ वनों के लिए वीर प्राण त्यागते। वृक्षों से लिपटी थीं अमृता की बाँहें, सैनिकों के सम्मुख उठी थीं निगाहें। तीन सौ तिरेसठ दीप बलिदान के जले, खेजड़ी की जड़ों में अमर गाथा पले। उनके जीवन का हर कण व्रत-सा पावन, शाकाहार, संरक्षण, सरलता का सावन। न जल को अपवित्र, न जीवों का वध, संवेदन का संकल्प, करुणा का शपथ। बिश्नोई नहीं बस एक नाम कहानी, वे धड़कती धरा की जीवित निशानी। जाम्भोजी के वचनों में बसा है प्रकाश, प्रकृति का संवर्धक, मनुज का अविनाश। जब समकालीन सभ्यता स्वार्थ में अंधी, बिश्नोई रहे ध्वजा बन प्रकृति की सांझी। नारा नहीं, जीवन से उपजी सच्ची भाषा, श्वास-श्वास में बहती वनों की अभिलाषा। आओ, इस तपस्वी समाज को करें प्रणाम, जिनसे सीखा जाता है, जीवन का असली काम। धरती का संरक्षण, नारा नहीं, संस्कार है, बिश्नोई — मानवता की अंतिम पुकार है। --- प्रियंका सौरभ