वीरता की त्रिमूर्ति थे भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव

ये सच है,याद शहीदों की हम सबने दफनाई है
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2025-03-23 19:40:35

ये सच है,याद शहीदों की हम सबने दफनाई है। ये सच है,उनकी लाशों पर चलकर आजादी आई है। ये सच है,हिन्दुस्तान आज ज़िन्दा उनकी कुर्बानी से। ये सच है,अपना मस्तक ऊँचा उनकी बलिदान कहानी से। वे अगर ना होते तो भारत मुर्दों का देश कहा जाता। जीवन ऐसा बोझा होता हमसे नहीं सहा जाता। यह सच है,दाग गुलामी के उनने लहू से धोए हैं। इस पीढ़ी में,उस पीढ़ी के,मैं भाव जगाया करता हूँ। मैं अमर शहीदों का चारण,उनके यश गाया करता हूँ। कविवर श्री कृष्ण सरल की ये पंक्तियां शहीदों की गौरव गाथा,उनके सम्मान, बलिदान और शौर्य को याद दिलाने के लिए काफी हैं।हर साल23 मार्च को देशभर में बलिदान-दिवस के रूप में गर्व के साथ मनाया जाता है।राष्ट्र-प्रेम वह भावना होती है जो इंसान को अपने राष्ट्र के प्रति अपना कर्त्तव्य निभाने की प्रेरणा देती है,जिससे प्रेरित होकर वह व्यक्ति अपना सर्वस्व राष्ट्र के प्रति समर्पित कर देता है।राष्ट्र प्रेम उसी व्यक्ति हृदय में हो सकता है,जिसके हृदय में त्याग की भावना होगी।एक स्वार्थी व्यक्ति कभी देशभक्त नहीं हो सकता।किसी व्यक्ति में जनकल्याण और देशप्रेम की भावना तभी विकसित होती है जब वह व्यक्तिगत हित की चिन्ता छोड़ देता है।देशभक्ति और देशप्रेम की भावना अमर शहीदों के रोम-रोम में समायी हुई थी।उनके लिए जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान् थी।शहीद-ए-आजम सरदार भगत सिंह व उनके साथियों शिवराम राजगुरु और सुखदेव थापर की ऐसी ही विचारधारा थी और उनमें मातृभूमि के लिए मर मिटने का जज्बा था।अगर हम स्वतन्त्रता संग्राम की वास्तविक पृष्ठभूमि में जाएं तो पायेंगें कि महान् स्वतन्त्रता सेनानी लाला लाजपत राय की शहादत का बदला लेने के लिए अंग्रेज पुलिस कप्तान सांडर्स की हत्या ने आजादी के आन्दोलन को नया आयाम दे दिया था।स्वाधीनता के संग्राम के दौरान सांडर्स वध और असैम्बली में बम विस्फोट,काकोरी काण्ड जैसी घटनाओं ने अंग्रेजी शासन की चूलें हिलाकर रख दी थी।भारत माता के सच्चे सपूत क्रान्तिकारी वीर देश के नायक बन गये थे।इनकी वीरता के कारनामों से फिरंगी हुकूमत थर्रा उठी थी और अंग्रेजी साम्राज्य की नींद हराम हो गई थी।स.भगत सिंह तथा उनके क्रांतिकारी सहयोगियों ने अंग्रेजी शासन और उसके जोर-जुल्म के खिलाफ जो रणभेरी बजाई वो एक विक्राल आंधी का रूप धारण कर चुकी थी।ऐसे में फिरंगियों ने छल,छद्म और कपट का सहारा लेकर तथा अपने पैरोकारों व गद्दारों के सहयोग से अपना दमन चक्र शुरू कर दिया। अनेक देशभक्तों को गिरफ्तार कर काला पानी की सजा दी गई, तरह-तरह की यातनायें दी गई।बहुतों को फांसी की सजा सुनाई गई।इसी क्रम में 23 मार्च 1931को शाम के 7 बजकर 33 मिनट पर निरंकुश अंग्रेजी हुकूमत ने भारत माता के तीन महान् सपूतों भगत सिंह,राजगुरु और सुखदेव को फांसी दे दी।तीनों वीरता की त्रिमूर्ति थे,जिन्होंने भारत माता को गुलामी की बेड़ियों से मुक्त करवाने के लिए अपना सर्वस्व अर्पित कर दिया था।ये तीनों वीर बहुत चुस्त दुरुस्त,साहसी व निडर थे।उनकी विचारधारा एक जैसी थी और उन्होंने हंसते-हंसते फांसी के फंदे को चूम लिया था।इन तीनों पर असैम्बली बम धमाके, कांस्पिरेसी केस व सांडर्स वध में लम्बे मुकदमें के उपरान्त जब 7अक्तुबर,1930 को फांसी की सजा सुनाई तो ये तीनों क्रांतिकारी इस फैसले से कतई भी विचलित नहीं हुए बल्कि भारत माता जिन्दाबाद तथा इंकलाब जिन्दाबाद के नारों से इसका स्वागत किया।तीनों देशभक्त क्रांतिकारियों में हमेशा चोली-दामन का साथ रहता था तथा तीनों को फांसी भी एक साथ दी गई।इन तीनों शूरवीरों ने भारत माता की स्वाधीनता के लिए हंसते-हंसते मृत्यु का वरण कर लिया।देशवासियों के सामने इन बहादुर शहीदों का जीवन एक कहानी बन गया था। शहीद-ए-आजम भगत सिंह ने कहा था कि व्यक्ति को तो मारा जा सकता है,लेकिन उसकी विचारधारा को कभी नहीं मारा जा सकता।यदि हमें देशवासियों की सोच में परिवर्तन लाना है तो उन तक अपनी विचारधारा को पहुंचाना होगा।इस प्रकार भगत सिंह,राजगुरु व सुखदेव का यह बलिदान देशवासियों को उनकी याद दिलाता रहेगा।ऐसा कहा जाता है कि क्रान्ति की ज्वाला और जन-आक्रोश के चलते इन तीनों वीरों को गुप-चुप तरिके से निर्धारित समय से पहले फांसी दी गई और इनके शवों को घरवालों को न सौंपकर फिरोजपुर के निकट सतलुज नदी के किनारे हुसैनीवाला स्थान पर मिट्टी का तेल डालकर जला दिया गया।भारत माता के इस सच्चे वीर सपूतों की याद में इस स्थान पर राष्ट्रीय शहीद स्मारक बनाया गया है,जहां हर साल शहीदों की स्मृति में मेला लगता है,जो कविवर जगदंबा प्रसाद मिश्र की इन पंक्तियों को सार्थक करता

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