2025-04-13 20:56:31
प्रियंका सौरभ हर चौक-चौराहे पर अब, सजती है एक माला, बाबा साहब की तस्वीरें, और सस्ती सी दीवाला। नेता भाषण झाड़ रहा है, मंच सजा है भारी, पर संविधान की आत्मा है, अब भी बहुत बेचारी। टोपियाँ नीली, झंडे ऊँचे, लगती क्रांति की टोली, लेकिन सवाल ये उठता है — कहाँ है वो भूली बोली? जो कहती थी हम सब एक हैं, जो गूँज थी अधिकारों की, आज दबा दिया है वो आवाज़ को नारों की। मूर्ति की पूजा होती है पर, विचार नहीं अपनाते, जिसने कड़वा सच लिखा था, उससे क्यों अब कतराते? जाति हटे न संसद से, न स्कूलों के गलियारों से, दलित आज भी खड़ा है, न्याय की लंबी क़तारों में। फ्री का राशन दे देकर, सम्मान को बेच रहे, सत्ता की कुर्सी पर बैठ, संविधान को खींच रहे। शब्द बड़े हैं भाषण में, कामों में है खोट, बाबा कहते “समता दो”, ये देते वोट की नोट। बाबा का सपना था — हर जन पावे भाग, न कोई हो छोटा-बड़ा, न हो कोई परायापन का दाग। पर आज जयंती के दिन भी, वही दोहराव का गीत, पिछड़ा, दलित, वंचित वर्ग — बस भाषणों की प्रीत। नेता वही जो हाथ में माला, मन में पाखंड लिए, बाबा के नाम पर चलते हैं, पर मन में कपट सिए। पुस्तकें धूल खा रहीं हैं, विचारों पर ताले, फिर भी कहते — “हमने श्रद्धा के फूल डाले।” जातिगत गणना से डरते, प्रतिनिधित्व से भागते, उनके नाम पे शपथ तो लेते, पर राह नहीं अपनाते। जो कहे हम बाबा के चेले, उनसे मेरा एक सवाल, क्या संविधान को जीया तुमने, या बस किया इस्तेमाल? न बंदनवार, न भाषण चाहिए, न ही माला भारी। बाबा की असली श्रद्धांजलि है — न्याय की जिम्मेदारी। श्रद्धांजलि जब सच्ची होगी, जब न्याय खड़ा होगा। बाबा का सपना तब ही, साकार बड़ा होगा।