2025-04-22 18:37:33
धरती की छाती पर हल की लकीरें, जैसे माँ के माथे की चिंता की तहरीरें। अन्न का बीज नहीं, उसने स्वप्न बोए थे, हर बूँद पसीने की, मानो मंत्र संजोए थे। पर देखो! एक दिन, धूप ने साँस ली लपटों में, हवा ने नाच किया राख की घटाओं में। कहीं एक चिनगारी, नादान-सी या साजिशी, और जल उठी पूरी फ़सल — एक होली अघोषित। ना कोई नाद, ना नगाड़ा, बस चुप्पी की चीखें, किसान खड़ा था—उस राख में ढूँढता उम्मीदों की रेखें। जिस खेत ने बुलाया था हर सुबह उसे नाम लेकर, वही आज झुलसा पड़ा है, किसी लावारिस की तरह। सरकारी काग़ज़ आए—कुछ आँकड़े, कुछ वादे, बीमे की पंक्तियों में छुपे छल और साधे। मुआवज़ा मिलेगा—यह आश्वासन का शब्द, पर क्या कोई हिसाब रख सका आँसुओं का अर्थ? ओ नीतिनायकों! तुम जो वातानुकूलित कमरों में, फसलों की आग को डेटा कहते हो, कभी चलो गाँव, उस राख पर पाँव रखो, महसूस करो वह तपिश जो आँतों तक जाती है। क्यों नहीं हैं ट्रैक्टर की तरह अग्निरोधक यंत्र? क्यों नहीं है खेत के लिए सुरक्षा का मंत्र? क्यों नहीं है नीति में किसान की साँस की गूंज? या फिर यह अन्नदाता अब केवल चुनावी एक तंज? यह कविता नहीं, एक याचना है, एक दस्तावेज़, उन आँखों का जो आँसुओं से भी पहले बुझ जाती हैं। जब खेत जलते हैं, तब केवल भूसा नहीं, पूरा देश धीरे-धीरे राख होता है। ---प्रियंका सौरभ