मानवता की दीर्घकालिक सुखसमृद्धि के लिए आवश्यक है वर्कलाइफ का बैलेंस

कॉर्पोरेट जगत के दिग्गज उद्यमी और उद्योगपति आजकल अपने-अपने तरीके से वर्क-लाइफ बैलेंस नामक अवधारणा के विभिन्न कोणों को परिभाषित करने में जुटे हुए हैं।
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2025-01-16 17:03:55

लखनऊ : कॉर्पोरेट जगत के दिग्गज उद्यमी और उद्योगपति आजकल अपने-अपने तरीके से वर्क-लाइफ बैलेंस नामक अवधारणा के विभिन्न कोणों को परिभाषित करने में जुटे हुए हैं। उनमें से किसी का दृष्टिकोण जीवन की भौतिक उपलब्धियों से प्रेरित है तो कोई पारिवारिक सम्बन्धों के माधुर्य को सहेजने, सँवारने की पैरोकारी कर रहा है। सवाल यह है कि मानव-जीवन का उद्देश्य क्या है? भारतीय मनीषा मनुष्य ही नहीं, बल्कि जीव मात्र को ब्रह्म का अंश निरूपित करती है। ब्रह्म सच्चिदानन्द स्वरूप है। उसमें सत्य, चेतना और आनन्द, तीनों का सन्निवेश है। जीव और उसके सर्वोत्कृष्ट स्वरूप मनुष्य में भी ब्रह्म का अंश विद्यमान है, किन्तु आनन्द तत्व से वंचित होने के कारण वह ब्रह्मत्व से वंचित है। आनन्द ही जीव और ब्रह्म के मध्य विभेदक तत्व है। अतः पूर्णत्व की प्राप्ति के लिए आनन्द की प्राप्ति ही मनुष्य का परम लक्ष्य होना चाहिए। कॉर्पोरेट जगत का मूल उद्देश्य कम्पनी के शेयरधारकों को अधिकतम लाभ देने की प्रेरणा से व्यवसाय करना होता है। भारतीय अर्थव्यवस्था में व्यवसाय की मुख्य निविष्टि है- मानव संसाधन और हमारे अधिकतर कॉर्पोरेट मानव संसाधन पर ही आधारित हैं। हमारे सकल घरेलू उत्पाद में पचपन से साठ प्रतिशत योगदान सेवा क्षेत्र का है और सेवा प्रदायगी का मुख्य साधन है मनुष्य। इस सन्दर्भ में इन्फोसिस-प्रमुख श्री नारायण मूर्ति की एक उक्ति है कि मेरे प्रतिष्ठान के कार्मिक मेरी आस्ति हैं, जो शाम को आराम करने जाते हैं और अगली सुबह तरो-ताज़ा होकर काम पर लौटते हैं। यह एक दिग्गज उद्यमी का बहुत-ही संतुलित दृष्टिकोण है। किन्तु सन्दर्भाधीन बहस में कुछ उद्यमियों ने मानव संसाधन को सम्भवतः मानव मानना ही छोड़ दिया है। उनमें से कुछ की बातों से यह आभास होता है कि उनका वश चले तो वे चाबुक मारकर अपने कार्मिकों से काम कराएँ। उनकी दृष्टि में मनुष्य का जन्म केवल काम करने के लिए हुआ है। इसीलिए कोई-कोई महानुभाव अपने कर्मचारियों से सप्ताह में 90 घण्टे तक काम कराने के आग्रही हैं। अपने सेवाकाल में हमें ऐसे लोगों के साथ काम करने का अवसर मिला है जो अपना घर-परिवार, बाल-बच्चे सब कुछ भुलाकर केवल काम करने या उसका छद्म रचने में जुटे रहते थे। एक सज्जन की पत्नी स्तन कैंसर से पीड़ित थीं। बच्चे दसवीं-ग्यारहवीं कक्षा में पढ़ते थे। पत्नी की देखरेख करनेवाला अन्य कोई नहीं। इसके बावजूद वे कार्यालय समय के बाद भी तब तक अपने कक्ष में बैठे रहते थे, जब तक संस्था के प्रबन्ध निदेशक कार्यालय से बाहर नहीं निकल जाते थे। यानी रात के आठ, साढ़े आठ बजे तक। हमारे बैंक अधिकारी सुपुत्र की शाखा में प्रभारी और अन्य कई अधिकारी रात के नौ, साढ़े नौ बजे तक अपने कम्प्यूटर खोलकर काम करने का दिखावा करते रहते हैं। आज हर बड़े कॉर्पोरेट की कम्प्यूटर प्रणालियाँ केन्द्रीकृत हैं। यानी हजारों किलोमीटर दूर स्थित प्रधान कार्यालय के कार्मिक विभाग को पता रहता है कि कौन अधिकारी कितनी देर तक शाखा में (काम करता!) रहता है। हो सकता है इस प्रकार कार्यालय में समय गुजारने वाले कार्मिकों को इसी में आनन्द तत्व की प्राप्ति होती हो। बहुत-से कार्मिक वास्तव में काम करते हों, यह भी सम्भव है। किन्तु उनके जीवनसाथी, माता-पिता, बच्चों यानी परिवार का क्या? भारत की जनसंख्या में 60 प्रतिशत युवा हैं। ज़ाहिर है कि कार्यस्थल पर एक मर्यादा से अधिक समय बिताने का दुष्परिणाम उक्त युवाओं के परिजनों को झेलना होगा। वे कार्यजनित आर्थिक लाभ चाहे पुष्कल मात्रा में पा लें, किन्तु उनके पारिवारिक जीवन में उस भावनात्मक ऊष्मा का सर्वथा लोप हो जाएगा जो मनुष्य जीवन की सबसे अनमोल निधि है। कॉर्पोरेट जगत में आज भावनात्मक बुद्धिमत्ता की भी बात होती है। यांत्रिक रूप से केवल धनोपार्जन में जुटा रहनेवाला व्यक्ति न केवल स्वयं भावनात्मक बुभुक्षा से ग्रसित होगा, बल्कि अपने परिजनों को भी इसकी आग में झोंक डालेगा। प्रसिद्ध विद्वान मैस्लो ने आवश्यकताओं के अनुक्रम (हायरार्की ऑफ नीड्स) में भौतिक और बुनियादी ज़रूरतों (फिजियोलॉजिकल एंड सिक्युरिटी नीड्स) को अपने पिरामिड के सपसे निचले सोपान पर और आत्मबोध (सेल्फ एक्चुअलाइजेशन) को शिखर पर रखा है। रात-दिन केवल लाभार्जन के लिए खटनेवाला व्यक्ति कॉर्पोरेट जगत में चाहे जिस पद पर कार्यरत हो, वह आत्मबोध की स्थिति में कैसे पहुँचेगा? मेरी दृष्टि में आत्मबोध और आनन्द तत्व परस्पर पर्यायवाची हैं। कार्यालय में बैठककर की जानेवाली कृच्छ साधना और उससे येनकेन प्रकारेण अर्जित साधन-सम्पन्नता सुशिक्षित समाज का प्राप्तव्य नहीं है। यदि ऐसा होता तो कॉर्पोरेट जगत में धमाल मचानेवाली कोई महिला अपने ही चार वर्ष के बच्चे को निर्ममता से मार न डालती। ऐसा होता तो पढ़े-लिखे अधिसंख्यक युवाओं के जीवन में वैसी बेचैनी न होती जो आज के कॉर्पोरेटजीवी युवा जगत में साफ दिखाई-सुनाई पड़ती है। कई दिन भूखा रहकर गृहत्यागी, युवा राजकुमार सिद्धार्थ को बोध हुआ कि मध्यम मार्ग ही सही है। भारतीय मनीषा कहती है- अति सर्वत्र वर्जयेत्। इसीलिए आज प्रबन्धन गुरुओं का एक वर्ग काम और आराम के संतुलन (वर्क-लाइफ बैलेंस) का हामी है। भारत सरकार ने नियम बनाया है कि कॉर्पोरेट निकाय अपने लाभ का 2 प्रतिशत हिस्सा समाज कल्याण पर खर्च करेंगे। अंग्रेजी में इस आशय की कहावत है कि दान की शुरुआत घर से होती है (चैरिटी बिगिन्स ऐट होम)। इसलिए हमारा विनम्र मत है कि अपने कार्मिकों को पारिवारिक सुख से वंचित करके, उन्हें रात-दिन खटानेवाले कॉर्पोरेट घराने चाहे जितना लाभ अर्जित कर लें, अपने कार्मिकों को आराम के लिए यथोचित समय दिये बिना उनकी बैलेंस शीट में दिखनेवाले लाभ का कोई अर्थ नहीं! महात्मा बुद्ध ने ही कहा था- अप्प दीपो भव। उसी तर्ज़ पर कॉर्पोरेट को स्वयं अपने कार्मिकों के काम और आराम की अवधि निर्धारित करनी चाहिए, ताकि भारत की युवा जनशक्ति चालीस पैंतालीस की वय में ही विभिन्न शारीरिक, मानसिक विकारों से पस्त होकर देश के संसाधनों पर बोझ न बन जाए।

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