2025-04-22 18:41:30
शब्दों से पहले चुप्पियाँ थीं, सिलवटों में सिसकती बेटियाँ थीं। किताबों में दर्ज़ थीं उम्मीदें, मगर दीवारों में बंद इज़्ज़त की तिज़ोरियाँ थीं। अजमेर की गलियों में कोई ताज नहीं गिरा था, गिरे थे भरोसे, रिश्ते, और आत्माएँ। एक शहर था जहाँ इबादत भी ख़ामोश थी, और इश्क़, एक जाल की भूमिका में था। वे लड़कियाँ पढ़ती थीं, सपने बुनती थीं, लेकिन हमने उन्हें सिखाया था— चुप रहो, सँभल कर चलो, अपने ही डर को पवित्र मानो। फिर आया इंस्टाग्राम— एक नई मस्जिद, एक नया मंदिर जहाँ दोस्ती फॉलो से शुरू होती थी, और ब्लैकमेल में तब्दील हो जाती थी। स्क्रीन की रौशनी में उजाले कम थे, अंधेरे अब डिजिटल हो चुके थे। झूठे प्रोफाइलों के पीछे छिपे थे हज़ारों अशरीरी राक्षस— बिना सींग, बिना पूँछ, बस एक चैट और एक क्लिक से वार करते। लड़कियाँ फँसी नहीं थीं— वे फँसाई गई थीं— सिस्टम की चुप्पी, समाज की नैतिकता, और हमारी लाचार शिक्षा नीति से। स्कूलों ने पाठ पढ़ाए, पर ना डर से लड़ने का पाठ पढ़ाया, ना इज़्ज़त के नाम पर घुटने को ना कहने का साहस। कोई पूछे उस माँ से जिसने बेटी को हवनकुंडों की तरह पाला, और फिर देखा— कैसे संस्कार चुप हो गए जब बेटी की इज़्ज़त ब्लूटूथ पर घूमने लगी। कोई पूछे उस प्रशासन से जो 1992 में भी सोया था, और अब 2025 में भी न्याय की गाड़ी वही पुरानी घिसी पटरियों पर खिसक रही है। क्योंकि बेटियाँ ग़लती नहीं करतीं— वे भरोसा करती हैं, और यही भरोसा उनकी सज़ा बन जाता है। --- अब समय है— कि परवरिश सिर्फ पर्दा न हो, संस्कार सिर्फ चुप्पी न हो, और शिक्षा सिर्फ अंकों का अंबार न हो। हमें चाहिए वो पाठ्यक्रम जो कहे— “तुम दोषी नहीं, तुम्हारे साथ जो हुआ, वह अन्याय है।” जब तक यह नहीं होगा— शब्दों से पहले चुप्पियाँ होंगी, और बेटियाँ— फँसी नहीं, फँसाई जाती रहेंगी। — प्रियंका सौरभ