चॉक की लकीरें, आंसुओं से भीगीं

ब्लैकबोर्ड बोले, “यहां उम्मीदें झुलसी हैं।”
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2025-04-16 18:43:58

ब्लैकबोर्ड बोले, “यहां उम्मीदें झुलसी हैं।” क्लास में खड़ा मास्टर, आंखों में नींद नहीं, तनख़्वाह पूछो तो कहता है—“जी, ज़रूरत नहीं!” सुबह की असेंबली, शाम तक की सज़ा, वीकेंड में भी मीटिंग, कहां है मज़ा? हाज़िरी में नाम है, इज़्ज़त में नहीं, छुट्टी मांगी तो जवाब—और कोई है नहीं? सिलेबस से तेज़ भागे, मोबाइल के नोट, बच्चा बोले “बोरिंग”, माँ बोले “कोचिंग छोड़!” प्रिंसिपल मुस्काए, जब टॉपर बने लाल, मास्टर पे बरसे, जब बच्चा हो बेहाल। फूल मिले शिक्षक दिवस पर, फोटो खिंचवाए, बाकी 364 दिन, गालियों के साए। महिला हो तो “मैडम”, पुरुष हो तो “भैया”, लेकिन तनख़्वाह वही, जो सुनते ही हंसी आ जाए। फॉर्म भराए, कॉल कराए, निबंध भी लिखे, व्हाटस् एप पर होमवर्क, रात 10 बजे भी दिखे। पर बोले स्कूल—आप तो पढ़ाते ही कितना हैं? मन करे पूछूं—“इतना सहूं, आखिर किसलिए मैं?” गुरु की गरिमा नहीं, बस जिम्मेदारियाँ हैं, शिक्षक नहीं, जैसे कोई मशीन बनाई है। अगर ये शिक्षा का मंदिर है, तो पुजारी क्यों भूखा, क्यों इतना बेबस है। --- डॉ सत्यवान सौरभ

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