2025-04-27 19:15:57
चौपालों की धूल भरी सांझ में, उठी एक आवाज़ — भीगी, मगर तेज़। ना अब घूंघट की जंजीरें, ना सपनों पर कोई संदेश। धर्मपाल के होंठों से फूटा प्रण, बुजुर्गी नहीं, भविष्य का आह्वान था वह। सरपंच कविता ने हटाया आंचल, बूढ़े बरगदों ने बजायी सहमति की थपकियां। ढाणी बीरन की रातें गवाह बनीं, जहां परंपराएं झुकीं, साहस खड़ा हुआ। बहुएं निखरीं, बेटियां मुस्काईं, सपनों की देहरी पर सूरज चढ़ा हुआ। पर्दा गिरा, परंपरा नहीं गिरी, गिरा तो भय, झिझक, अविश्वास का अंधकार। ढाणी बीरन ने नहीं खोया सम्मान, बल्कि पाया अपनी बेटियों का उजास अपार। जिस चौपाल ने कभी थामे थे सिर झुके, अब वहां आँखों में चमकती हैं दिशाएं। घूंघट की जगह अब धूप है माथे पर, संकोच की जगह अब गीत हैं हवाओं में। > परंपरा के वस्त्र बदलते हैं, सम्मान के अर्थ नहीं। ढाणी बीरन ने उड़ते सपनों में, स्वीकृति के रंग भरे कहीं।