2025-01-20 17:37:25
पौराणिक मान्यताएं:– पौराणिक मान्यताओं के अनुसार महाकुंभ त्योहार अमृत के लिए हुए दिव्य युद्ध की याद दिलाता है। माना जाता है कि यह पौराणिक घटना भारत की पवित्र नदियों के किनारे इन चार पवित्र स्थलों पर हुई थी। हर 12 साल में, हर जगह विशिष्ट ज्योतिषीय संरेखण के आधार पर कुंभ मेले का आयोजन होता है। √महाकुंभ का इतिहास :– कुंभ मेले का इतिहास कम से कम 850 साल पुराना है। कुछ दस्तावेज बताते हैं कि कुंभ मेला 525 बीसी में शुरू हुआ था। कुंभ मेले के आयोजन लेकर विद्वानों में अनेक भ्रांतियां हैं। वैदिक और पौराणिक काल में कुंभ तथा अर्धकुंभ स्नान में आज जैसी प्रशासनिक व्यवस्था का स्वरूप नहीं था। कुछ विद्वान गुप्त काल में कुंभ के सुव्यवस्थित होने की बात करते हैं। परन्तु प्रमाणिक तथ्य सम्राट शिलादित्य हर्षवर्धन 617-647 ई. के समय से प्राप्त होते हैं। बाद में श्रीमद आघ जगतगुरु शंकराचार्य तथा उनके शिष्य सुरेश्वराचार्य ने दसनामी संन्यासी अखाड़ों के लिए संगम तट पर स्नान की व्यवस्था की। कुंभ मेला (पवित्र घड़े का उत्सव) पृथ्वी पर तीर्थयात्रियों का सबसे बड़ा शांतिपूर्ण समागम है, जिसके दौरान प्रतिभागी पवित्र नदी में स्नान करते हैं या डुबकी लगाते हैं। भक्तों का मानना है कि गंगा में स्नान करने से व्यक्ति पापों से मुक्त हो जाता है और जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है। बिना किसी आमंत्रण के लाखों लोग इस स्थान पर पहुंचते हैं। समागम में तपस्वी, संत, साधु, आकांक्षी-कल्पवासी और आगंतुक शामिल होते हैं। यह उत्सव इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में हर चार साल में बारी-बारी से आयोजित किया जाता है और इसमें जाति, पंथ या लिंग के बावजूद लाखों लोग शामिल होते हैं। हालांकि, इसके मुख्य आयोजक अखाड़ों और आश्रमों, धार्मिक संगठनों या भिक्षा पर रहने वाले व्यक्ति होते हैं। कुंभ मेला देश में एक केंद्रीय आध्यात्मिक भूमिका निभाता है, जो आम भारतीयों पर एक मंत्रमुग्ध प्रभाव डालता है। यह आयोजन खगोल विज्ञान, ज्योतिष, अध्यात्म, अनुष्ठानिक परंपराओं और सामाजिक और सांस्कृतिक रीति-रिवाजों और प्रथाओं के विज्ञान को समाहित करता है, जो इसे ज्ञान में बेहद समृद्ध बनाता है। चूंकि यह भारत के चार अलग-अलग शहरों में आयोजित किया जाता है, इसलिए इसमें विभिन्न सामाजिक और सांस्कृतिक गतिविधियाँ शामिल होती हैं, जो इसे सांस्कृतिक रूप से विविधतापूर्ण त्यौहार बनाती हैं। परंपरा से संबंधित ज्ञान और कौशल प्राचीन धार्मिक पांडुलिपियों, मौखिक परंपराओं, ऐतिहासिक यात्रा वृत्तांतों और प्रख्यात इतिहासकारों द्वारा निर्मित ग्रंथों के माध्यम से प्रसारित किए जाते हैं। हालाँकि, आश्रमों और अखाड़ों में साधुओं का गुरु-शिष्य संबंध कुंभ मेले से संबंधित ज्ञान और कौशल प्रदान करने और उनकी सुरक्षा करने का सबसे महत्वपूर्ण तरीका बना हुआ है। महाकुंभ में भाग लेने वाले नागा साधु, अघोरी और संन्यासी सनातन धर्म और परंपरा की गहराई और विविधता को दर्शाते हैं। महाकुंभ का यह आयोजन सनातन धर्म की आस्था, सामाजिक एकता और सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक है। √पौराणिक मान्यता:– ऐसा कहा जाता है कि एक बार इन्द्र देवता ने महर्षि दुर्वासा को रास्ते में मिलने पर जब प्रणाम किया तो दुर्वासाजी ने प्रसन्न होकर उन्हें अपनी माला दी, लेकिन इन्द्र ने उस माला का आदर न कर अपने ऐरावत हाथी के मस्तक पर डाल दिया। जिसने माला को सूंड से घसीटकर पैरों से कुचल डाला। इस पर दुर्वासाजी ने क्रोधित होकर इन्द्र की ताकत खत्म करने का श्राप दे दिया। तब इंद्र अपनी ताकत हासिल करने के लिए भगवान ब्रह्मा और भगवान शिव से संपर्क किया, जिन्होंने उन्हें विष्णु भगवान की प्रार्थना करने की सलाह दी, तब भगवान विष्णु ने क्षीरसागर का मंथन करके अमृत निकालने की सलाह दी। भगवान विष्णु के ऐसा कहने पर संपूर्ण देवता दैत्यों के साथ संधि करके अमृत निकालने के यत्न में लग गए। समुद्र मंथन के लिए मंदराचल पर्वत को मथानी और नागराज वासुकि को रस्सी बनाया गया। जिसके फलस्वरूप क्षीरसागर से पारिजात, ऐरावत हाथी, उश्चैश्रवा घोड़ा रम्भा कल्पबृक्ष शंख, गदा धनुष कौस्तुभमणि, चन्द्र मद कामधेनु और अमृत कलश लिए धन्वन्तरि निकलें। सबसे पहले मंथन में विष उत्पन्न हुआ जो कि भगवान् शिव द्वारा ग्रहण किया गया। जैसे ही मंथन से अमृत दिखाई पड़ा,तो देवता, शैतानों के गलत इरादे समझ गए, देवताओं के इशारे पर इंद्र पुत्र अमृत-कलश को लेकर आकाश में उड़ गया। समझौते के अनुसार उनका हिस्सा उनको नहीं दिया गया तब राक्षसों और देवताओं में 12 दिनों और 12 रातों तक युद्ध होता रहा। इस तरह लड़ते-लड़ते अमृत पात्र से अमृत चार अलग-अलग स्थानों पर गिर गया, जिन स्थानो पर अमृत गिरा, वो स्थान थे। इलाहाबाद, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन। तब से, यह माना गया है कि इन स्थानों पर रहस्यमय शक्तियां हैं, और इसलिए इन स्थानों पर कुंभ मेला लगता है। जैसा कि हम कह सकते है देवताओं के 12 दिन, मनुष्यों के 12 साल के बराबर हैं, इसलिए इन पवित्र स्थानों पर प्रत्येक 12 वर्षों के बाद कुंभ मेला लगता है। √इलाहाबाद कुंभ:– ज्योतिष शास्त्रियों के अनुसार जब बृहस्पति कुम्भ राशि में और सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है, तब कुम्भ मेले का आयोजन किया जाता है। प्रयाग का कुम्भ मेला सभी मेलों में सर्वाधिक महत्व रखता है। इस बार कुंभ मेले का आयोजन इलाहाबाद में किया जा रहा है। 15 जनवरी से शुरू होने वाला यह मेला 4 मार्च तक चलेगा। √हरिद्वार कुंभ:– हरिद्वार हिमालय पर्वत श्रृंखला के शिवालिक पर्वत के नीचे स्थित है। प्राचीन ग्रंथों में हरिद्वार को तपोवन, मायापुरी, गंगाद्वार और मोक्षद्वार आदि नामों से भी जाना जाता है। हरिद्वार की धार्मिक महत्तान विशाल है।यह हिन्दुओं के लिए एक प्रमुख तीर्थस्थान है। मेले की तिथि की गणना करने के लिए सूर्य, चन्द्र और बृहस्पति की स्थिति की आवश्यकता होती है। हरिद्वार का संबंध मेष राशि से है। √नासिक कुंभ:– भारत में 12 में से एक जोतिर्लिंग त्र्यम्बकेश्वर नामक पवित्र शहर में स्थित है। यह स्थान नासिक से 38 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है और गोदावरी नदी का उद्गम भी यहीं से हुआ। 12 वर्षों में एक बार सिंहस्थ कुम्भ मेला नासिक एवं त्रयम्बकेश्वर में आयोजित होता है। ऐतिहासिक प्रमाणों के अनुसार नासिक उन चार स्थानों में से एक है, जहां अमृत कलश से अमृत की कुछ बूंदें गिरी थीं। कुम्भ मेले में सैंकड़ों श्रद्धालु गोदावरी के पावन जल में नहा कर अपनी आत्मा की शुद्धि एवं मोक्ष के लिए प्रार्थना करते हैं। यहां पर शिवरात्रि का त्यौहार भी बहुत धूम धाम से मनाया जाता है। √उज्जैन कुंभ:– उज्जैन का अर्थ है विजय की नगरी और यह मध्य प्रदेश की पश्चिमी सीमा पर स्थित है। इंदौर से इसकी दूरी लगभग 55 किलोमीटर है। यह शिप्रा नदी के तट पर बसा है। उज्जैन भारत के पवित्र एवं धार्मिक स्थलों में से एक है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शून्य अंश (डिग्री) उज्जैन से शुरू होता है। महाभारत के अरण्य पर्व के अनुसार उज्जैन 7 पवित्र मोक्ष पुरी या सप्त पुरी में से एक है। उज्जैन के अतिरिक्त शेष हैं अयोध्या, मथुरा, हरिद्वार, काशी, कांचीपुरम और द्वारका। कहते हैं की भगवन शिव नें त्रिपुरा राक्षस का वध उज्जैन में ही किया था। कुंभ योग के विषय में विष्णु पुराण में उल्लेख मिलता है। विष्णु पुराण में बताया गया है कि जब गुरु कुंभ राशि में होता है और सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है तब हरिद्वार में कुंभ लगता है। √कुंभ, क्या है महा, अर्ध और पूर्ण कुंभ में अंतर :– दरअसल, कुंभ मेला चार प्रकार का होता है- कुंभ, अर्ध कुंभ, पूर्ण कुंभ और महाकुंभ. सभी कुंभ मेला ग्रहों की स्थिति के अनुसार आयोजित किए जाते हैं. कुंभ मेले के आयोजन में वर्ष का समय भी बहुत महत्वपूर्ण है. प्रत्येक कुंभ मेले का अपना विशेष महत्व होता है। √महाकुंभ:– अगला महाकुंभ अगले साल यानी 2025 में प्रयागराज में आयोजित किया जाएगा। यह 13 जनवरी को शुरू होगा और 26 फरवरी को खत्म होगा. आखिरी बार महाकुंभ प्रयागराज में 2013 में आयोजित किया गया था। 12 साल बाद प्रयागराज फिर से कुंभ मेले की मेजबानी कर रहा है। √कुंभ मेला :– कुंभ मेले का आयोजन प्रयागराज के अलावा हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में भी किया जाता है. यह मेला 12 साल के अंतराल पर मनाया जाता है. इसके लिए चारों स्थानों को बारी-बारी से चुना जाता है. इस दौरान श्रद्धालु गंगा, क्षिप्रा, गोदावरी और संगम (तीन नदियों का मिलन स्थल) में स्नान करते हैं। √अर्ध कुंभ:– कुंभ मेले के विपरीत अर्धकुंभ हर छह साल के बाद मनाया जाता है। अर्धकुंभ केवल दो स्थानों पर आयोजित किया जाता है, प्रयागराज और हरिद्वार अर्ध का मतलब होता है आधा इसीलिए यह छह साल बाद आयोजित किया जाता है। कुंभ अर्थात् संचय करना। कुंभ का कार्य है सभी को अपने में समाहित कर लेना, नानत्व को एकत्व में ढाल देना, जो ऊबड़-खाबड़ है उसको भी आत्मसात कर आकार दे देना। घट में अवघट का अस्तित्व विलीन हो जाये तब घट अर्थात कुंभ की सार्थकता है। लोक हमेशा अमृत के कुंभ की स्मृति रखता है। हमारे विचार, हजारों पदार्थ, इस कुंभ में समाकर अमर हो जाते हैं। कुंभ केवल मेला मात्र नही है बल्कि भारतीय जनमानस की आस्था का प्रतीक है। संगम के इस महासमागम में संपूर्ण भारत का दृश्य मौजूद है। कोई किसी से नहीं पूछने वाला किस प्रदेश जाति के हैं। समूचे भारत का रीति रिवाज खान पान रहन सहन वेशभूषा इस महाकुंभ में घुलकर भारतीय संस्कृति का दर्शन पेश कर रही है। महंगाई की मार झेलती श्रद्धालुओं का उत्साह ठण्डा नहीं है। संगम का अर्थ केवल नदियों का समागम नहीं यह विविध संस्कृतियों का समागम संस्कारों का समागम विभिन्न आश्रमों का समागम, धर्म अर्थ मोक्ष का समागम देश और विदेश का समागम है।