2023-10-11 13:34:41
भारत मे अगर इस जाति की संख्या को लेकर विश्लेषण किया जाये तो जाट समाज को आंकड़ों के हिसाब से सत्ता व्यवस्था में हावी होने वाली कौम होना चाहिए। लोकतंत्र अक्सरियत से चलता है और अक्सरियत में लगभग 16 प्रान्तों में 6 करोड़ से अधिक जाट समुदाय है। भारतीय शासन व्यवस्था में जाट समुदाय आज कहाँ खडा है? समाज को उस पर विचार करने की आवश्यकता है। ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में देखा जाए तो इस देश का लोकतंत्र जाति व धर्म के समीकरणों से ही चलता आया है और सत्ता का बनना व बिगड़ना जातिय समीकरण ही तय करते रहे है।
जाट कौम ने प्राचीन काल से ही अपना वर्चस्व कायम रखा है। मगर स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद लगातार गिरावट का दौर जारी है। आज उसी का नतीजा है कि देश के प्रमुख राजनीतिक दलों में इस समुदाय की कोई खास अहमियत नहीं है। लंबे समय तक केंद्र और राज्यों की सरकारों में मुख्य रूप से प्रतिनिधित्व करने वाले कौम के प्रतिनिधि नदारद हैं। पिछले पचास-साठ सालों में पहली बार है कि केंद्र की भाजपा सरकार में आज एक भी कैबिनेट स्तर का मंत्री नही है। यह इस कौम के लिए दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है।
आज हमें उन अपने पूर्वजों को याद करना चाहिए, जो भारत की राजनीति में आज़ादी से पहले और आज़ादी के बाद डंका बजाने वाले जाट समुदाय के प्रभावशाली खांटी नेताओं में प्रमुख किसान नेता दीनबंधु सर छोटूराम, चौधरी चरणसिंह, चौधरी देवीलाल, कुंभाराम आर्य, परसराम मदेरणा, रामनिवास मिर्धा, नाथूराम मिर्धा आदि थे। हालांकि चौधरी चरण सिंह की विरासत को संभालने वाले और राजनीतिक गलियारों के शकुनियों की राजनीतिक दांवपेच के शिकार होने वाले स्वर्गीय चौधरी अजीत सिंह ने अपने छोटे राजनैतिक दल के बलबूते पर लगभग तीन दशकों तक केंद्र की राजनीति में समाज का बख़ूबी प्रतिनिधित्व किया। लेकिन आखिरी समय में उनको भी इसी समाज के कुछ लालची और मौकापरस्त लोगों ने किनारे लगाने का काम किया। जिसका खामियाजा आज भी यह समाज भली-भांति भुगत रहा है।
अखिल भारतीय जाट आरक्षण संघर्ष समिति के अध्यक्ष यशपाल मलिक कहते हैं कि इसमें कोई दोराय नही है कि आज जाट समाज दोराहे पर नही बल्कि चौराहे पर खड़ा है। पिछले तीन चार दशकों में जाट समाज में सामाजिक संगठन बनाने की प्रक्रिया की शुरुआत हुई। जिसकी पहल राजस्थान में जाट आरक्षण आंदोलन के रूप एक बड़े आंदोलन के रूप में हुई। जिसके कारण राजस्थान ही नहीं बल्कि कई अन्य राज्यों के जाट समाज को भी आवाज उठाने पर प्रदेश स्तर पर आरक्षण मिला और इसी दौरान उत्तर प्रदेश में भी जिला स्तर व प्रदेश स्तर पर जाट सभाओं के गठन का कार्य शुरू हुआ।
इसी दौरान पिछले कई दशकों से मृतप्राय अखिल भारतवर्षीय जाट महासभा को जीवित करने का काम चौधरी युद्धवीर सिंह के नेतृत्व में स्व चौधरी दारा सिंह को अध्यक्ष बनाकर किया गया। लेकिन जैसे ही जाट महासभा को पुनर्जीवित कर उसका प्रचार प्रसार हुआ तो समाज के कुछ रिटायर्ड अधिकारी वर्ग के लोगों को लगा कि राजनीति करने और समाज के प्रतिनिधित्व करने के बहाने सत्ता में पिछले दरवाजे से राज्य सभा पहुचने, लोकसभा और विधानसभा का टिकट हासिल करने का यह एक आसान रास्ता हो सकता है। क्योंकि राजस्थान से जाट आरक्षण की अगुवाई करने वाले पूर्व वरिष्ठ पुलिस अधिकारी व जाट महासभा अध्यक्ष चौधरी दारा सिंह को राज्यसभा में जाना उसका उदाहरण था। अतः अखिल भारतवर्षीय जाट महासभा को कुछ सेवानिवृत्त अधिकारियों द्वारा ले लिया गया था और स्व चौधरी दारा सिंह व युद्धवीर सिंह द्वारा एक नई ऑल इंडिया जाट महासभा का गठन कर लिया गया।
आज हमारे समाज के अधिकतर संगठन मंदिर, धर्मशाला व गौशाला के निर्माण के महत्वपूर्ण कार्यो में लगे हुए है। आज जाट समाज के संगठनों की सोशल मीडिया पर बाढ़ सी आ गई हैं। लेकिन अधिकतर लोग सोशल मीडिया का प्रयोग समाजहित में न करते हुए एक दूसरे का चरित्र हनन या दूसरी राजनीतिक विचारधारा से जुड़े जाट समाज के लोगों को गाली देने का काम में प्रयोग कर रहे हैं। पिछले कुछ सालों में यह परंपरा समाज को अलग-अलग राजनीतिक खेमों के बांटकर समाज के पतन का कारण बन गई है।
हालांकि यह चरित्र समाज केवल उन लोगों का है जिनकी ट्रेनिंग विभिन्न सियासी दलों के राजनेताओं द्वारा हुई है। इनकी इस तुच्छ मानसिकता के व्यवहार के कारण पूरे समाज को बदनामी उठानी पड़ती है। विदित हो उदेश्य विहीन सामाजिक संगठन समाज को दिशा न देकर आपस में मतभेदों और मनमुटाव के कारण किसी अन्य राजनीतिक हितों के लिए समाज की बलि दे देता है। हालांकि यहां इज बताना जरूरी है कि राजस्थान में जिला स्तर पर समाज के कई संगठन सराहनीय प्रयास करते हुए शिक्षा के प्रचार प्रसार, स्कूल और छात्रावास आदि के निर्माण की दिशा में कार्य कर रहे हैं।
सामाजिक कार्यकर्ता और चिंतक प्रेमसिंह सियाग कहते हैं कि अगर मैं राजस्थान की बात करूं तो राजस्थान की राजनीति में हमेशा से जाट सियासत का बड़ा महत्व रहा है। लेकिन तमाम सियासी पैंतरेबाजी और संघर्ष के चलते जाट राजनीति में सियासी शून्य कायम हो चला है। सात जिलों की करीब 50 विधानसभा सीटों पर खासा प्रभाव होने के बावजूद इस समाज को उतना महत्व नहीं मिल पा रहा है।
साल 1998 के चुनाव में दिग्गज जाट नेता परसराम मदेरणा के कांग्रेस प्रदेश अध्यक्ष होने के नाते उन्हें सीएम फेस मानकर जाट समाज ने कांग्रेस को 200 में से 153 सीटें दी। जाट समाज यह मानकर चल रहा था कि पहली बार राजस्थान में जाट मुख्यमंत्री बनेगा और वे परसराम मदेरणा होंगे। लेकिन साफ-सुथरी राजनीति करने और चुनाव जीतने के माहिर मदेरणा राजनीतिक बिसात बिछाने में कामयाब नहीं हो सके और वह अपने राजनीतिक विरोधियों का शिकार हो गए।
राजस्थान की राजनीति में जाट समुदाय का बड़ा महत्व रहा है, पिछले छह दशकों से किसान समुदाय के नाम पर जाटों का ही वर्चस्व रहा है, जाट समुदाय मे पूर्व के प्रभावशाली खांटी नेताओं में किसान नेता कुंभाराम आर्य, श्रीमती गौरी पुनिया, परसराम मदेरणा, शीशराम ओला, रामनिवास मिर्धा, नाथूराम मिर्धा आदि जैसे वन मैन शो वाले नेता रहे हैं, जो अपने समय की संपूर्ण राजनीति को अपने हिसाब से चलाते थे, वर्तमान में जाट समुदाय के अन्य नेताओं में महाराजा विश्वेन्द्र सिंह, कर्नल सोना राम चौधरी, हरीश चौधरी, रिछपाल मिर्धा, ज्योति मिर्धा, दिगंबर सिंह, रामरारायण डूडी, नारायण बेड़ा, हरेन्द्र मिर्धा, बद्री नारायण जाखड़, महीपाल मदेरणा, रुपाराम मुरावतिया, चैनाराम रॉयल, राजेन्द्र चौधरी, विजय पुनिया सरीखे नामी गिरामी नेता हैं। परंतु आज जाट समुदाय को वर्तमान की राजनीति में करिश्माई नेतृत्व की तत्काल आवश्यकता है, जो पार्टी लाइन से परे हटकर जाट समुदाय को राजस्थान की राजनीति में पुन: स्थापित कर सके।
हालांकि राजस्थान के कई राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि जाट समुदाय के करिश्माई नेता की खाली जगह को हनुमान बेनीवाल भर सकते हैं। वर्तमान में उसे राजस्थान की जाट राजनीति का चमकता चेहरा और प्रदेश के जाट युवाओं के दिल में जगह बनाने में कामयाब रहे हैं। कुछ लोगों का मानना है कि हनुमान बेनीवाल ही वह शख्सियत है, जो राजस्थान में कांग्रेस-भाजपा के विकल्प रुप मे तीसरे मोर्चे के नेता रुप में राजस्थान की भावी राजनीति मे उबाल लाते हुए, भाजपा-कांग्रेस या अशोक गहलोत-वसुंधरा राजे दोनो के लिए चुनौती देने का काम कर सकतें हैं। हाल ही में किसान आंदोलन के मद्देनजर केंद्र सरकार के सत्ताधारी दल के सहयोगी होने के बावजूद तीन कृषि विधेयकों का विरोध करने और सरकार का साथ छोड़ने के बाद उनकी लोकप्रियता प्रदेश ही नही वरन अन्य प्रान्तों के किसान परिवारों में तेजी से बढ़ी है।
दरअसल इस समाज का दुर्भाग्य देखिए कि क़रीब 16 राज्यों में फैली इतनी बड़ी और मार्शल क़ौम की आज यह दयनीय हालत और दुर्गति यह है कि उसके पास एक राज्य से बाहर कोई पार्टी नहीं, एक राष्ट्रीय स्तर का कोई संगठन नहीं, एक युथ विंग तक नहीं है। कहने को सबसे बड़ी किसान कौम है, मगर किसानों की लड़ाई लड़ने से लेकर किसान आंदोलनों तक इनके साथ दूसरी कोई किसान कौम प्रमुखता से खड़ी होने को तैयार नहीं है। इसके अलावा इस क़ौम में एक और बीमारी है कि अगर समाज का कोई क़ाबिल विद्वान व्यक्ति समाज हित या समाज की भलाई के लिए कोई दिशा देने की कोशिश करता भी है, तो समाज के झंडाबरदार, समाज के ठेकेदार, भामाशाह और राजनेता उसको ही क़ौम का सबसे बड़ा दुश्मन समझने और बताने लगते हैं, समाज का कोई इतिहासकार, साहित्यकार या पत्रकार आवाज उठाने की कोशिश करता है तो राजनीतिक दलों या अन्य संगठनों में बंटे क़ौम के नेता उसको धमकाने और चुप कराने की पुरजोर कोशिश करते है, जिसका मैं स्वयं भुक्तभोगी हूं। अगर कोई राजनेता समाज की बात करता है तो विभिन्न राजनीतिक दलों का फीता गले मे लटकाए लोग उसके खिलाफ मैदान में उतरते है और उसके आगे-पीछे कलमकार, बुद्धिजीवी, सामाजिक संगठन, सामाजिक सेनाएं काम करने लगती है।
हरियाणा, राजस्थान, पश्चिम उत्तर प्रदेश और पंजाब के जाट नैतिक रूप से समानता, स्वतंत्रता व बंधुता को आगे बढ़ाने वाले अर्थात मानवतावादी, प्रकृति पूजक रहें हैं। मेरे विचार से आज जाट समाज की यही पूंजी उनकी दुश्मन बन गई है। जाट समाज के बुद्धिजीवी वर्ग का राजनैतिक जाट सदा दुश्मन बनकर लड़ता रहा है, आज जाट समाज के इतिहासकार के साथ जाट कौम का युवा धार्मिक अंधभक्त बनकर दुर्व्यवहार सा कर रहा है, जाट समाज का अधिकारी वर्ग, समाज के बुद्धिजीवी वर्ग को सदैव एक दुश्मन की तरह देखता रहा है, जाट समाज के भामाशाह समाज के गरीब बच्चों की शिक्षा के लिए मदद करने, बुद्धिजीवी वर्ग की मदद करने, राजनीतिक नुमाइंदों का सहयोग करने, क़ौम के चंद कलमकारों के पेन में स्याही भरने के बजाय पाखंड व अंधविश्वास पर समय और धन बर्बाद करने में अपना अस्तित्व तलाश रहें हैं।
आज देश के सबसे बडे कर्मठ समुदाय और तुलनात्मक रूप से समृद्ध किसान की माली हालत कमजोर होती जा रही है और वह राजनीतिक धोखे से जूझ रहा हैं। हरियाणा में दो दशकों तक लगातार जाट समुदाय के मुख्यमंत्री को हटाने और समाज के नेताओं को किनारे लगाने के लिए सामाजिक भाईचारे को तोड़कर 35 बनाम एक का नारा बनाया गया है यानि समाज की 35 जातियों को किसी एक जाति के ख़िलाफ़ लामबंद करने की ये कोशिश थी जिसमें वें सफ़ल भी हुए। इसके लिए भी शायद हमारे समाज के ही जाट आरक्षण के नाम पर राजनीति करने वाले कुछ तथाकथित नेता ही है।
आज केंद्र और राज्यों के सत्ताधारी राजनीतिक दलों में समाज के नाम पर राजनीति कर रहे तथाकथित नेताओं की हैसियत सिर्फ कुर्सी और दरा बिछाने की है। अतः मैं पूरी जिम्मेदारी के साथ कह सकता हूं कि यही कारण है कि विषम से विषम परिस्थितियों में हर क्षेत्र में अपना लोहा मनवाने वाला भारत का सबसे बड़ा जातीय समूह आज देश की सत्ता-व्यवस्था में हाशिये पर खड़ा है।
- के. पी. मलिक
(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं)